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मैथिल पंजी प्रबंध

वैदिक काल में ही, ऋषियों ने जीवन यापन की प्रणाली के लिए अनेक महत्वपूर्ण सिद्धांत सुस्थिर कर दिए थे जो आज भी हिन्दू समाज में समादृत है। स जातो येन जातेन जाति वंशः समुन्नतिम। परिवर्तिनी संसारे मृतः कोवा न जायते।। आज से लगभग अढ़ाई हजार वर्ष पहले का लिखा यह श्लोक मानव जात के विभिन्न वर्ग में उन्नति का उद्घोष करता है, क्योंकि जाति का विधान प्राकृतिक आधार पर वैज्ञानिक संगठन है। किसी भी योजना को चलाने के लिए त्याग भावना महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है, बीज जब अपने आप को गलाता है, तब अंकुरण संभव होता है, ब्राह्मण का अधोगति कारण में से पंजी का उपेक्षा सर्वप्रथम है तथा दूसरा दीक्षा मंत्र से दीक्षित नहीं होना।

ये दोनो कारण संस्कार हीनता का प्रमुख कारण है। जब संस्कार ही नहीं तो उन्नति का आधार ही दूसरा क्या ? उन्हीं सिद्धांतों में एक वैवाहिक सिद्धांत यह है कि माता की ओर से पाँच पुश्त एवं पिता की ओर से सात पुश्त तक की संतति में वैवाहिक संबंध नहीं होना चाहिए। जैसा की याज्ञवल्क्य ऋषि ने लिखा है "मातृः पंचमंत्यक्त्वा पितृतः सप्तमं त्यजेत्"। सारे भारत एवं मिथिला में भी इसी सिद्धांत के आधार पर वैवाहिक संबंध होता है। इसी वैवाहिक सिद्धांत को सुष्पष्ट करने के लिए मिथिला में पंजी प्रथा उद्गम हुआ। मिथिला के राजा हरिसिंहदेव की प्रेरणा से यह प्रथा संचालित हुई। अतः इस पंजी प्रथा को "हरिसिंहदेवी व्यवस्था" भी कहते हैं।

सन 1326 ई. में पंजी की पोथियाँ बनाई गई "मिथिला तत्वविमर्श पूर्वार्द्ध पृष्ठ 136" पितृ पक्ष से सात एवं मातृ पक्ष से पाँच पीढियों के भीतर वैवाहिक संबंध को रोकने के लिए सभी जातियों की वंशावली तालपत्र पर लिखी गई। उसी उल्लिखित वंशावली को पंजी कहते हैं और तदनुसार संपन्न होनेवाली शास्त्र सम्मत वैवाहिक प्रथा को "पंजी प्रथा" कही जाती है। महाराजा हरिसिंहदेव की प्रेरणा से सभी जातियों की वंशावली उल्लिखित हुई थी लेकिन क्षत्रिय आदि अन्य जातियों के द्वारा अस्वीकार करने पर उन लोगों की उल्लिखित वंशावली नष्ट हो गई। लेकिन मैथिल ब्राह्मणों एवं कर्णकायस्थों की पंजी प्रथा आज भी विद्यमान है।

पंजी प्रथा के पूर्व मैथिल ब्राह्मणों एवं कर्णकायस्थों की वंशावली अधिकारी विद्वानों द्वारा एक जगह उल्लिखित नहीं होती थी। प्रत्येक कुल में कुछ ऐसे समझदार व्यक्ति रहते थे जो अपने पूर्वजों का उतना ज्ञान रखते थे, जितना विवाह संबंध के लिए ऋषियों ने वर्जित किया था। लेकिन अंगुलियों से गिनती कर वैवाहिक संबंध करने से गड़बड़ी होने लगी। परिणामतः वैवाहिक संबंध होने लगा जिससे शँकर संतान अभिवृद्धि होने लगे थे। अर्थात मातृपक्ष से पाँच एवं पितृपक्ष से सात के भीतर भी वैवाहिक संबंध होने लगे।

"मिथिला तत्वविमर्श" आदि ऐतिहासिक ग्रंथों से ज्ञात होता है कि महाराजा हरिसिंहदेव के समय "बाबा मुक्तेश्वरनाथ धाम" महादेव मंदिर के निकट सतघरा गाँव में पंडित हरिनाथ शर्मा नाम के विद्वान रहते थे। अपने भाई के अभद्र व्यवहार से रूठकर वे परदेश चले गए। उनकी धर्मपत्नी प्रतिदिन बाबा मुक्तेश्वरनाथ महादेव की भक्तिपूर्वक पूजा करती थी और मनाती थी कि उनके पति सकुशल घर वापस चले आयें। संयोग से एक दिन चाण्डाल बुरी भावना से वहाँ आया और उसने पंडित हरिनाथ शर्मा की धर्मपत्नी के सतीत्त्व को भग्न करना चाहा। शर्मा जी की पत्नी ने महादेव से अपनी सतीत्त्व की रक्षा के लिए प्रार्थना करने लगी कि मंदिर के द्वार पर दो काले नाग खड़े हो गए। वह चाण्डाल मंदिर के भीतर प्रवेश नहीं कर सका। धीरे - धीरे लोग वहाँ आ गये चाण्डाल भी खिसक गया।

शर्मा जी की पत्नी भी अपने घर चली गई। किन्तु किसी सूत्र से यह अफवाह फैला दिया गया की पं हरिनाथ शर्मा की धर्मपत्नी का धर्म भ्रष्ट हो गया है। परिणाम स्वरूप वह समाज से वहिष्कृता हो गई। कुछ दिन पश्चात् पंडित हरिनाथ शर्मा परदेश से लौटे उन्हें पता चला तो वह पुनः परदेश लौटने लगे कि उनकी पत्नी का संवाद मिला कि वो अपनी पत्नी से मिलकर सारी वस्तु स्थिति की जानकारी ले लें। बाद में जैसा विचार हो वैसा करें। शर्मा जी ने घर से बाहर ही अपनी पत्नी से मिले, पत्नी ने सारी बातें बताई। उस समय ग्राम पंचायत द्वारा अपराधी की अग्नि परीक्षा होती थी। ग्रामाध्यक्ष के सामने जब ये बात आई कि भगवान शंकर की कृपा से पं शर्मा की पत्नी का धर्म बच गया है तब उनकी अग्नि परीक्षा हुई।

अग्नि परीक्षा में अपराधी के हाथ पर पीपल के कुछ पत्ते रखे जाते थे और उनसे संकल्प कराया जाता था कि वह व्यक्ति यदि अमुक अपराध का अपराधी हो तो उसका हाथ जलने लगे। हाथ पर पीपल के पत्ते पर तप्तलौह रखा जाता था। धर्मशास्त्र में वर्णित दूरी तक तप्त लौह लेकर चले जाने पर अभियुक्त का हाथ नही जलते थे तो वह अपराध मुक्त समझा जाता था। परन्तु शर्माजी की पत्नी का हाथ जलने लगा था, इसलिए ग्रामाध्यक्ष द्वारा उन्हें अपराधी घोषित कर दिया गया था। परन्तु शर्माजी की पत्नी को विश्वाश था की वह अपराधिनी नहीं है, महादेव की कृपा से मेरा पतिव्रत धर्म नष्ट नही हुआ है।

उस समय मिथिला के राजा हरिसिंहदेव के महामंत्री कविकोकिल विद्यापति ठाकुर के पितामह भ्राता चण्डेश्वर ठाकुर थे जिनकी धर्मपत्नी लखिमा ठकुराइन बड़ी विदुषी थीं। पं हरिनाथ शर्मा की पत्नी लखिमा ठकुराइन के पास गई और उन्होने आपविती सुनाई। लखिमा ठकुराईन ने संकल्प वाक्य की जाँच की, जिससे अग्नि परिक्षा ली गई थी। जाँच के बाद लखिमा ठकुराइन ने कहा कि पंडितों ने जिस वाक्य से अग्नि परिक्षा लिया है वह त्रुटिपूर्ण है। ग्रामीणों ने जिस वाक्य से अग्नि परिक्षा लिया था उसका अर्थ था कि यदि अभियुक्त चाण्डालगामिणी हों, तो उनके हाथ जल जायें।

लखिमा ठकुराइन ने कहा संभव है, अभियुक्त के पति ही चाण्डाल हों, अतः संकल्प वाक्य होना चाहिये कि स्वामी के अतिरिक्त अभियुक्त यदि चाण्डालगामिणी हो तो उनके हाथ जल जायें। लखिमा ठकुराइन की कथनानुसार पं. हरिनाथ शर्मा की पत्नी का अग्नि परीक्षा कराई गई। इस बार उनके हाथ नहीं जले। शर्माजी की पत्नी निरपराध प्रमाणित हो गई। परन्तु यह भी सिद्ध हो गया की शर्माजी में चाण्डालत्व दोष है । पं हरिनाथ शर्मा नैष्ठिक विद्वान थे किसी को विश्वाश नही होता था कि उनमें चाण्डालत्व दोष हो सकता है। मिथिला के राजा हरिसिंहदेव ने तब मिथिला के 1400 मिमांशक विद्वानों, पंडितों की सभा बुलाई।

बहुत विचार विमर्श के बाद यह देखा गया कि पं हरिनाथ शर्मा का विवाह शास्त्रानुकूल नहीं हुआ है, जिससे उनमें चाण्डालत्व दोष आ गया है। जिस सीमा तक पितृपक्ष की संतति से धर्मशास्त्र में वैवाहिक सम्बन्ध करने की मनाही है, उसी सीमा के भीतर पं शर्मा की वैवाहिक सम्बन्ध हो गया था। यह कथा पंजी पोथी के प्रारंभ में उल्लिखित है। हरिसिंहदेव ने सोचा कि जब पं. हरिनाथ शर्मा जैसे शास्त्रज्ञ का अनाधिकार वैवाहिक सम्बन्ध हो सकता है तो सामान्यजनों में बहुत होता होगा अतः उन्होने निर्णय लिया कि सभी लोगों की वंशावली एक जगह उल्लिखित हो।

उस वंशावली को देखकर अधिकारी विद्वान निर्णय दें अमुक का वैवाहिक सम्बन्ध शास्त्रसम्मत है। इस लिखित निर्णय को सिद्धान्त कहते हैं एवं सिद्धान्त लिखने वालों को पंजिकार कहा जाता है। राजा के आदेशानुसार वंशावली तैयार करने हेतु विद्वान जुट गए। गाँव - गाँव में जाकर वंशावली तैयार करने लगे "मिथिला तत्व - विमर्श" के अनुसार ज्ञात होता है की रघुदेव नाम के पंडित ने पंजी की पोथियाँ बनाई। 1400 मिमांशक ने मिलकर इस महाकार्य का संपादन किया उनके नेता रघुदेव पंडित रहे होंगे।


मंदिर का पता

देवहार, अंधराठाढ़ी, मधुबनी,
बिहार, पिनकोड 847224, IN

समय - सारणी

प्रातः 05:00 AM - अपराह्न 12:00 PM
अपराह्न 04:00 PM - रात्रि 09:00 PM
प्रातःकालीन महाश्रृंगार एवं महाआरती 05:30 AM
संध्याकालीन महाश्रृंगार एवं महाआरती 08:30 PM

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